हरिवंशराय बच्चन की कविता: सर्वदा

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हरिवंशराय बच्चन की कविता: सर्वदा
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यह लेख हरिवंशराय बच्चन की एक प्रसिद्ध कविता, 'सर्वदा' को प्रकाशित करता है। कविता जीवन के विभिन्न चरणों और मानवीय भावनाओं का चित्रण करती है।

'हिंदी हैं हम' शब्द शृंखला में आज का शब्द है- सर्वदा , जिसका अर्थ है- हमेशा, सदा। प्रस्तुत है हरिवंशराय बच्चन की कविता - मैंने उषा के गाल चूमे कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! एक सृष्टि के प्रारंभ में मैंने उषा के गाल चूमे, बाल रवि के भाग्यवाले दीप्त भाल विशाल चूमे प्रथम संध्या के अरुण दृग चूमकर मैंने सुलाए, तारिका-कलि से सुसज्जित नव निशा के बाल चूमे, वायु के रसमय अधर पहले सके छू होंठ मेरे, मृत्तिका की पुतलियों से आज क्या अभिसार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! दो...

जान ले तू, तन विकृत हो जाए लेकिन मन सदा अविकार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! पाँच निष्परिश्रम छोड़ जिनको मोह लेता विश्व भर को, मानवों को, सुर-असुर को, वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को, भंग कर देता तपस्या सिद्ध, ऋषि, मुनि सत्तमों की, वे सुमन के बाण मैंने ही दिए थे पंचशर को; शक्ति रख कुछ पास अपने ही दिया यह दान मैंने, जीत पाएगा इन्हीं से आज क्या मन यार मेरा! कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा! छह प्राण प्राणों से सकें मिल किस तरह, दीवार है तन, काल है घड़ियाँ न गिनता, बेड़ियों का शब्द...

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