Opinion | सेंट्रल मीडिया एक्रेडिटेशन गाइडलाइन्स सिर्फ पत्रकारों को मान्यता देने या न देने से जुड़ी हुई नहीं हैं. यह इस बात को भी दर्शाती हैं कि देश के निर्वाचित प्रतिनिधि लोकतंत्र का क्या हश्र कर रहे हैं. | seemay PIB
1975 के लोकतांत्रिक झटके के बाद भारतीय जनतंत्र को देखने का नजरिया बदल गया था. दुनिया भर में भारतीयको शान से देखा जा रहा था. यहां 400 से ज्यादा न्यूज चैनल और रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स फॉर इंडिया में एक लाख से ज्यादा पब्लिकेशंस दर्ज थे. मीडिया मुक्तलिफ, बेतकल्लुफ और सतरंगी देश का स्वरूप दर्शाता था. उसकी जीवंतता की मिसाल ढूंढे न मिलती थी.लेकिन इस जोशीली कहानी में एक अहम मोड़ तब आया, जब सरकार ने केंद्रीय मीडिया प्रत्यायन दिशानिर्देश , 2022 जारी किए.
इसका यह मतलब भी हुआ कि पत्रकार जो लिखेंगे, उस पर जिन मानदंडों के हिसाब से फैसला लिया जाएगा, उन मानदंडों की बहुत आसानी से अपनी तरह से व्याख्या की जा सकती है. पत्रकारों के लिए सरकारी मामलों तक पहुंचना क्यों जरूरी है? बाकी बातों से अलग, यह इस बात की तरफ इशारा करता है कि सरकार खुद को कितना जवाबदेह समझती है. जैसे सूचना के अधिकार ने लोकतंत्र का परचम लहराया था और ब्यूरोक्रेसी में जिम्मेदारी की भावना पैदा की थी. इसके अलावा सत्ता के गलियारों तक पत्रकारों की कानूनी पहुंच से यह स्पष्ट होता है कि कार्यकारिणी का हिसाब किताब रखा जाएगा और उन्हें पत्रकारों के सभी अप्रिय और विरोधी सवालों का सामना करना पड़ेगा.
यह महत्वपूर्ण है कि लोकतंत्र एक रहे और किसी को भी पांच साल के जनादेश के साथ इतनी ताकत न मिल जाए कि पूरी व्यवस्था ही उलट जाए. कार्यपालिका को असहज महसूस कराना ही लोकतंत्र का सार है. यही कारण है कि मान्यता प्राप्त पत्रकारों के लिए यह जरूरी है कि वे किसी मनोनीत अधिकारी या पत्रकारों की चुनी हुई समिति की दया के भरोसे न हों, जो मनमाने तरीके से पत्रकारीय 'आचरण' की व्याख्या करती हो.बेशक इन नियमों को दूसरे कदमों के लिहाज से भी देखा जाना चाहिए.
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